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स꣡ यो꣢जत उरुगा꣣य꣡स्य꣢ जू꣣तिं꣢ वृथा꣣ क्री꣡ड꣣न्तं मिमते꣣ न꣡ गावः꣢꣯ । प꣣रीणसं꣡ कृ꣢णुते ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गो꣣ दि꣢वा꣣ ह꣢रि꣣र्द꣡दृ꣢शे꣣ न꣡क्त꣢मृ꣣ज्रः꣢ ॥१११८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमते न गावः । परीणसं कृणुते तिग्मशृङ्गो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ॥१११८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । यो꣣जते । उरुगाय꣡स्य꣢ । उ꣣रु । गाय꣡स्य꣢ । जू꣣ति꣢म् । वृ꣡था꣢꣯ । क्री꣡ड꣢꣯न्तम् । मि꣣मते । न꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । प꣣रीणस꣢म् । प꣣रि । नस꣢म् । कृ꣣णुते । तिग्म꣡शृ꣢ङ्गः । तिग्म꣢ । शृ꣣ङ्गः । दि꣡वा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । द꣡दृ꣢꣯शे । न꣡क्त꣢꣯म् । ऋ꣣ज्रः꣢ ॥१११८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1118 | (कौथोम) 4 » 2 » 1 » 3 | (रानायाणीय) 8 » 1 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में आचार्य शिष्यों को यह उपदेश दे रहा है कि चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) वह सोम चन्द्रमा (उरुगायस्य) विस्तीर्ण ग्रहोपग्रहों में जिसका प्रकाश पहुँचता है, ऐसे सूर्य के (जूतिम्) वेगवान् किरणसमूह को (योजते) अपने साथ जोड़ता है। (वृथा) अनायास (क्रीडन्तम्) भूमि और सूर्य के चारों ओर क्रीड़ा करनेवाले उस चन्द्रमा को (गावः) सूर्यकिरणें (न मिमते) सम्पूर्ण रूप में व्याप्त नहीं करतीं, किन्तु जितने भाग में सूर्यकिरणें पहुँचती हैं, चन्द्रमा का उतना ही भाग प्रकाशित होता है। तो भी कभी-कभी (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्ण किरणोंवाला सूर्य चन्द्रमा को (परीणसम्) परि व्याप्त (कृणुते) कर लेता है, तब पूर्णिमा में चन्द्रमा पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है। वह चन्द्रमा (दिवा) दिन में (हरिः) हरा-काला सा (ददृशे) दिखाई देता है, (नक्तम्) रात्रि में (ऋज्रः) शुभ्र ॥३॥

भावार्थभाषाः -

पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और चन्द्रमा पृथिवी के चारों ओर घूमता-घूमता पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। चन्द्रमा सूर्य की किरणों से प्रकाशित होता है। चन्द्रमा की जितनी कलाओं पर सूर्य-किरणें पहुँचती हैं, उतनी ही कलाएँ प्रकाशित दिखती हैं। प्रतिपदा को एक कला, द्वितीया को दो कलाएँ, तृतीया को तीन कलाएँ, अष्टमी को आठ कलाएँ, और पूर्णमासी को सब कलाएँ प्रकाशित होती हैं। अमावस्या को चन्द्रमा पर कहीं भी सूर्य-किरणों के न पहुँचने से सारा ही चन्द्र-मण्डल अन्धकार से ढका रहता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूर्य-किरणें हमेशा चन्द्रमा के एक गोलार्ध पर ही पड़ती हैं, अतः दूसरे गोलार्ध में सदा अन्धेरा ही रहता है। गुरुओं को चाहिए कि चन्द्रमा के प्रकाशित होने का यह नियम तथा भूगोल और खगोल सम्बन्धी अन्य भी नियम शिष्यों को उपदेश करते रहें ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथाचार्यः शिष्यान् सूर्याच्चन्द्रमसः प्रकाशनमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) असौ सोमः चन्द्रः (उरुगायस्य) उरुषु विस्तीर्णेषु लोकेषु ग्रहोपग्रहेषु गायः प्रकाशगतिः यस्य तस्य सूर्यस्य (जूतिम्) वेगवन्तं किरणसमूहम् (योजते) स्वात्मना योजयति। (वृथा) अनायासम् (क्रीडन्तम्) भूमिं सूर्यं च परितः आकाशे विहरन्तं तं चन्द्रम् (गावः) सूर्यकिरणाः (न मिमते) सम्पूर्णतया न परिच्छिन्दन्ति। [माङ् माने शब्दे च जुहोत्यादिः।] यावति भागे सूर्यकिरणाः पतन्ति चन्द्रस्य तावानेव भागः प्रकाशितो दृश्यत इति भावः। तथापि कदाचित् (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्णकिरणः सूर्यः चन्द्रमसम् (परीणसम्) परितो व्याप्तम्। [नसतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (कृणुते) करोति, तदा च पूर्णिमायां चन्द्रः, पूर्णतः प्रकाशितो जायते। स चन्द्रः (दिवा) दिवसे (हरिः) हरितः कृष्णवर्णः (ददृशे) दृश्यते, (नक्तम्) रात्रौ च (ऋज्रः) शुभ्रः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

पृथिवी सूर्यं परितो भ्रमति, चन्द्रमाश्च पृथिवीं परितो भ्रमन् पृथिव्या सह सूर्यमपि परिक्राम्यति। चन्द्रः सूर्यकिरणैः प्रकाश्यते। यावतीषु चन्द्रकलासु सूर्यरश्मयः पतन्ति तावत्य एव चन्द्रकलाः प्रकाशिता दृश्यन्ते। प्रतिपद्येका कला, द्वितीयायां द्वे कले,तृतीयायां तिस्रः कलाः प्रकाशन्ते। अमावस्यायां च चन्द्रे कुत्रापि सूर्यरश्मीनामपतनाच्चन्द्रमण्डलमन्धकारावृतं जायते। एतदप्यवधेयं यत् सूर्यरश्मयः सदा चन्द्रस्यैकस्मिन्नेव गोलार्द्धे पतन्ति, तस्माद् द्वितीयो गोलार्धः सदाऽन्धकारित एव तिष्ठति। चन्द्रप्रकाशस्य स नियमो भूगोलखगोलयोरन्ये चापि नियमा गुरुभिः शिष्यान् प्रत्युपदेष्टव्याः ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।९७।९ ‘सं र॑हंत उरुगा॒यस्य॑’ इति पाठः।